शुक्र ग्रह :
शु्क्र ग्रह को भले ही आप नाम से न पहचानते हों लेकिन आप सभी इस ग्रह से पूर्व परिचित हैं। सूर्यास्त के बाद पश्चिम में सबसे चमकदार और सबसे बड़ा दिखलाई देने वाला शु्क्र ग्रह ही है, इसीलिए इसे शाम का तारा भी कहा जाता है। चमक की द्रष्टि से सूर्य तथा चंद्रमा के बाद अन्य आकाशीय पिण्डों में इसका नम्बर पहला है। अँधेरी रात में इसके प्रकाश के कारण वस्तुओं की हल्की छाया भी देखी जा सकती हैं। जिस प्रकार यह ग्रह शाम को सबसे पहले दिखाई देता है उसी प्रकार प्रातः काल यह पूर्व में सबसे बाद तक दिखाई देता हैं। इस कारण इसे भोर का तारा भी कहते हैं। आदि काल में लोग इसे दो प्रथक ग्रह मानते थे और इसके दो अलग-अलग नाम भी थे – फास्फोरस तथा हैस्पैरस किन्तु विख्यात रेखा गणितिज्ञ पाइथागोरस ने 500 ईशा पूर्व यह पता लगा लिया था कि वे दोनों वास्तव में एक ही हैं। इसकी अत्यधिक चमक के कारण विशेष अवस्थाओं में इसे धूप के समय भी देखा जा सकता है क्यों कि यह प्रकाश का अच्छा परावर्तक है।
पृथ्वी से इसकी न्यूनतम दूरी लगभग चालीस करोड़ किलोमीटर है इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आप 1000 किलोमीटर प्रति घन्टे की गति वाले यान से चलें तो शु्रक्र तक पहुँचने में साढे़ चार वर्ष से भी अधिक समय लगेगा।
हमारी पृथ्वी और शुक्र में बहुत समानता है। शु्क्र ग्रह का व्यास लगभग बारह हजार किलोमीटर है तथा पृथ्वी का बारह हजार आठ सौ। शुक्र और पृथ्वी की मा़त्रा का अनुपात चार और पाँच का है। इसका घनत्व 5.1 ग्राम प्रति घन सेन्टीमीटर है जो पृथ्वी के घनत्व से थोड़ा ही कम है। इसकी घूर्णन अक्ष अपनी कक्षा से तेेइस डिग्री का कोण बनाती है जबकि पृथ्वी की अक्ष का झुकाव साढ़े तेइस डिग्री है। इस प्रकार आकार आदि में शु्क्र पृथ्वी के बहुत समान है। यदि आप कभी इस ग्रह पर पहुँच सकें और अन्य परिस्थितियाँ अनुकूल हों, तो इस पर चलने फिरने में आप को कोई कठिनाई अनुभव नहीं होगी। आकार में इतनी समानता के कारण इसे पृथ्वी की जुड़वाँ बहिन भी कहा जाता है। इतनी अधिक समानता और सामीप्य के बावजूद भी हम शु् क्र के बारे में बहुत कम जानते हैं क्योंकि इसके चारों तरफ घने बादलों का मोटा आवरण है जिसके कारण शक्तिशाली दूरदर्शी की सहायता से भी हम इसकी वास्तविक सतह नहीं देख पाते। दूरदर्शी से हम शु्क्र की कलाएँ अवश्य देख पाते हैं जो चन्द्रमा की कलाओं के समान होती हैं। जब शु्क्र बालचन्द्र के समान होता है तब यद्यपि उस समय धूप वाले भाग का तीस प्रतिशत ही हमारी तरफ होता है परन्तु उस समय वह पूर्ण रूप से दीप्त अवस्था की तुलना में हमारे अधिक समीप होता है और अत्यधिक चमकदार दिखता है।
शुक्र के सम्बन्ध में एक बड़ी समस्या है उसके घूर्णन काल अथवा दिन की लम्बाई ज्ञात करना। यह समस्या इतनी कठिन न होती यदि उसके तल पर कोई स्थाई चिह्न होता। शुक्र के दिन की लम्बाई 243 दिन आँकी गई है जब कि उसके द्वारा सूर्य की परिक्रमा लगाने का समय 225 दिन है। अर्थात उसके दिन की अवधि, वर्ष की अवधि से थोड़ी अधिक है। इस स्थिति में उसकी पश्वगति के कारण उसके दिन की अवधि हमारे 117 दिन के बराबर और रात की अवधि हमारे 58 दिन के बराबर होगी। शुक्र का कोई उपग्रह नहीं है। यदि होता तो हमारे शुक्र तक पहुँचने के बीच एक स्टेशन का काम करता।
कई प्रेक्षकों ने शुक्र पर कटाव तथा उभार देखे हैं परन्तु ऐसा संभव नहीं होता कि इनका कारण पहाडियाॅ होंगी। दूरदर्शी से देखने पर इसके उभयाग्रों पर चमकीली टोपियाॅ दिखाई देती हैं जो महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह दीप्त चमकीली टोपियाॅ हमेशा नहीं दिखती पर समय समय पर पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती हैं और उनके अस्तित्व के बारे में कोई शंका नहीं की जा सकती। हो सकता है कि यह टोपियाॅ शुक्र के धु्रवीय भाग में होने वाली वायुमण्डलीय घटनाएॅ हों।
शुक्र ग्रह से संबंधित दूसरी वायुमण्डलीय घटना एशैन प्रकाश है, जिसने आरम्भिक प्रेक्षकों को अचम्भे में डाल दिया था। एशैन प्रकाश रात्रिमय भाग की उस धीमी चमक को कहते हैं जो बाल चन्द्राकार शुक्र की पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ती हैै। इसे इतनी बार और इतने लोगों ने देखा है कि इसके अस्तित्व के बारे में कोई संदेह नहीं रह गया है हालँंकि इसका कारण अभी तक अनिश्चित हैं। हो सकता है यह प्रकाश शुक्र के उपरी वायु मण्डल में शक्तिशाली धु्रवीय ज्योति के कारण उत्पन्न होता हो। धु्रवीय ज्योति जिसे अंग्रेजी में अॅरोरा कहते हैं, एक उच्च स्तरीय वायुमण्डलीय दीप्ति है जो सूर्य से आने वाले विद्युतीय कणों से उत्पन्न होती हैं।
हाॅलैण्ड में हुए अनुसंधानों से यह पता चलता है कि शुक्र का एक शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र है। जब शुक्र सूर्य व पृथ्वी के बीच से होकर गुजरता है तब उस समय उसका चुम्बकीय क्षेत्र सूर्य से पृथ्वी तक आने वाले आवेशयुक्त कणों पर अपना प्रभाव डालता है। इस प्रभाव के अध्ययन से यह अनुमान होता है कि संभवतः शुक्र का चुम्बकीय क्षेत्र हमारी अपनी दुनिया के चुम्बकीय क्षेत्र से अधिक हो और इसीलिए वहाँ विद्युतीय घटनाएँ होना स्वाभाविक है।
शुक्र हमारे जितने पास हैं और जितना सुन्दर दिखाई देता है उतना ही अधिक रहस्यमय भी है इसीलिए शुक्र के बारे में केवल अनुमान ही लगाए जा सकते हैं।
शुक्र हमारी पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य के अधिक समीप है इसीलिए उसका तापक्रम अधिक होना स्वाभाविक है। सूक्ष्म रेडियो तरंगों की सहायता से वैज्ञानिकों द्वारा इसका तापक्रम दिन वाले भाग में 421 डिग्री सेल्सियस तथा रात वाले भाग 275 डिग्री सेल्सियस के लगभग आँका गया है। इतने अधिक तापक्रम पर शु्रक्र पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। पृथ्वी की अपेक्षा शु्रक्र पर इतने अधिक तापक्रम का होना सूर्य से दूरी के अनुपात में तर्कसंगत नहीं है। इतना अधिक तापक्रम संभवतः वहाँ के वायुमण्डल में चल रही भयंकर आँधियों के कारण है जो गैस के कणों को आपस में रगड़ कर इतनी अधिक उष्मा उत्पन्न कर देती हैं। सैद्वांतिक आधार पर वैज्ञानिकों ने यह अनुमान लगाया है कि शुक्र के वातावरण में जलवाष्प तथा कार्बनडाईआॅक्साइड गैस का बाहुल्य है। शुक्र का वायुमण्डल किस प्रकार का है यह जानने का एक ही तरीका है और वह है स्पैक्ट्रमदर्शी का उपयोग जो उन्नीसवीं शताब्दी में प्रारंभ हो गया था परन्तु विश्वस्त परिणाम सन् 1932 तक प्राप्त हो सके जिसमें अमेरिका में स्थित माउन्ट विल्सन वैद्यशाला में यह प्रमाणित किया गया कि शुक्र पर कार्बनडाईआॅक्साइड की भारी मात्रा है। अब प्रश्न यह था कि जब शुक्र हर तरह से पृथ्वी जैसा ही है तो फिर उसका वायुमण्डल साँस लेने योग्य क्यों नहीं होना चाहिए? परन्तु ऐसा लगता है कि वहाँ मुक्त आॅक्सीजन नहीं है जिसके कारण वहाँ इस प्रकार का विकसित जीवन संभव नहीं हो सकता जिससे हम परिचित हैं। किसी ग्रह के वायुमण्डल का विश्लेषण सरल कार्य नहीं है क्योंकि प्रेक्षणों पर पृथ्वी का वायुमण्डल प्रभाव डालता है। पृथ्वी के समीप जो आक्सीजन एवं जलवाष्प है, उसका प्रभाव स्पैक्ट्रम पर पड़ता है। इन कारणों से सन् 1959 मेें कमाण्डर रास एवं सी. बी. मूर नामक दो अमेरिकी गुब्बारे में बैठ कर काफी उँचाई तक गए और उन्होंने शुक्र के स्पैक्ट्रम का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि शुक्र पर जलवाष्प उपस्थित हैं। 1908 में वार्नर नाम के एक वैज्ञानिक के शोधकार्य से शुक्र पर आॅक्सीजन के होने की संभावना बढ़ गई है। इन सबसे यह स्पष्ट हो गया कि शुक्र का वायुमण्डल जीवन के लिए इतना प्रतिकूल नहीं है जितना अब तक माना जाता था। एन. स्वैश का मत है कि शुक्र ग्रह के आवरण में सोडियम क्लोराइड और मेग्नेशियम क्लोराइड लवण विद्यमान हैं। जो पहले महासागरों के सूख जाने से उत्पन्न हुए होंगे। विभिन्न वैज्ञानिकों ने शुक्र के आवरण में अलग-अलग पदार्थों के होने का अनुमान लगाया है जिसके कारण इनकी यथार्थता के कुछ निश्चित प्रमाण नहीं हैं। इस असमर्थता के कारण हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि शुक्र के तल पर क्या हो सकता है। एक अनुमान यह भी है कि समस्त ग्रह धूलमय मरुस्थल है और इसके सघन तथा साँस लेने के अयोग्य वायुमण्डल में लगातार तूफान आते रहते हैं। वहाँ का ताप पानी के उबलने के ताप से बहुत अधिक रहता है व सूर्य का प्रकाश वहाँ कभी नहीं पहूँच पाता किन्तु गुब्बारों से लिए गए प्रेक्षणों से मरुस्थल के सिद्धांत को आघात पहुँचा और शुक्र पर जीवन होने की संभावना कुछ बढ़ गई।
पृथ्वी पर जीवन 50 करोड़ वर्ष पहले समुद्र में आरम्भ हुआ था। उस समय हमारे वायुमण्डल में अब के मुकाबले कार्बनडाईआॅक्साइड बहुत अधिक व आॅक्सीजन कम थी और हमारे जैसे प्राणी उसमें साँस नहीं ले सकते थे। यह बहुत बाद की बात है कि पौधे भूमि पर फैल गए और उन्होंने कार्बनडाईआॅक्साइड हटाकर उसके स्थान पर आॅक्सीजन जमा की जिससे ऐसा लगता है कि शुक्र ऐसा संसार है जहाँ जीवन का आरम्भ अभी हो ही रहा है।
अन्तरिक्ष अनुसंधान के अन्तर्गत रूसियों ने पिछली सदी में एक उपग्रह छोड़ा था और आशा यह थी कि सौ दिन की यात्रा के पश्चात् वह शुक्र के बहुत समीप से गुजरेगा और हमें विस्तृत जानकारी देगा किन्तु शुरू में ही उसका रेडियो सम्पर्क टूट गया और वह अंतरिक्ष में भटक गया।
पिछली सदी में लाॅस ऐन्जिल्स के वैज्ञानिक लैरी कोलेन ने शुक्र पर गंधक के तेजाब के धुएँ की उपस्थिति की संभावना व्यक्त की थी।
नासा द्वारा 1978 में मेजे गए पायनियर नाम के उपग्रह ने शुक्र के समीप जाकर उसका विस्तृत अध्ययन किया जिससे शुक्र क्रे रहस्य की कुछ पर्ते अवश्य खुलीं हैं किन्तु वहाँ पर जीवन की संभावनाएँ नगण्य हैं।
यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने अगस्त 2010 में शुक्र की सतह पर गर्म स्थलों को चिह्नित किया है जिनसे ग्रह पर पूर्व में ज्वालामुखीय सक्रियता की संभावना व्यक्त की गई है।
– प्रो. एच. एस. खरे
पूर्व प्राचार्य, उच्च शिक्षा